vaibhav upadhyay

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Tuesday, April 14, 2015

मीडिया स्वामित्व और वैश्वीकरण का प्रभाव

भूमिका:_

आज के वर्त्तमान    समय अगर एक मिनट के लिए भी हम  खुद को मीडिया से अलग कर के या बिना मीडिया के समाज कि कल्पना करे तो निश्चय ही इससे भयावह कुछ नहीं हो सकता है।  मानव समाज के रहन सहन से लेकर , खान - पान , वेश भूषा शिक्षा  , रोजगार समाज का कोई भी क्षेत्र इसके बिना अधूरा है।  हमारी छोटी - मोटी जरुरतो से लेकर बड़ी - बड़ी आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए   हमें मीडिया कि जरुरत पड़ती है।  विश्व हो या भारत शुरुवाती दिनों में मीडिया इतना प्रभावी नहीं  हुआ करता था जितना अभी है।  क्योकि अगर हम  विश्व स्तर  पर समाचार पत्रो कि बात करे तो प्रारम्भ में मीडिया  का मतलब सिर्फ समाचार पत्र हुआ करता था , और ये समाचार पत्र हर समाचार को प्रमुखता से छापते  भी नहीं थे
भारत में आजादी के पहले तक प्रकाशित होने वाले पत्रो का सिर्फ एक उद्देश्य हुआ करता था , देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराना, पर जैसे ही आजादी के बाद दूरदर्शन का पदार्पण हुआ मीडिआ का उद्देश्य धीरे - धीरे बदलने लगा।  अब मीडिया सूचना के साथ लोगो के मनोरंजन करने का का भी  जिम्मा उठा ली ।  आजादी बाद देश में निजीकरण का तेजी से विकास हुआ , और देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए सरकार  ने भी इस तरफ अपना ध्यान केंद्रित किया।

1990  के पहले देश में सिर्फ  एक ही चैनल  हुआ करता था , और ये चैनल पब्लिक अथार्टीय  द्वारा संचालित होता था , अतः अनैतिकता , अपराध , पक्षपात जैसे बातो को भारतीय मीडिया में सुनाने को नहीं मिलता था।  1990 के बाद जब देश वैश्वीकरण कि दुनिया में प्रवेश किया तो देश कि पूरी तस्वीर ही बदल गयी। देश में तेजी से प्राईवेट चैनलो के द्वार खुले और एक के बाद एक नए समाचार चैनल से लेकर मनोरंजक चैनल अस्तित्व में आने लगे। मीडिया अब बीजिनस घरानों के स्वामित्व में आने लगा।

 अब तक तो सूचना देना व मनोरंजन करना दूरदर्शन का काम हुआ करता था अब उसके कई विकल्प आ गए थे।  इन चैनलो में खासकर जी न्यूज़ , आज तक , स्टार न्यूज़ , व एन डी टी वी  न्यूज़ चैनल थे।  इन चैनलो ने  समाज के लोगो को अपने आकर्षक  प्रस्तुतीकरण व एंकरिंग से काफी प्रभावित किया , और लोग दूरदर्शन  को थका घोड़ा मान , इन फुर्तीले व तेज तरार घोड़ो कि सवारी करने लगे। 
समाज हित व सामजिक जिम्मेदारियों को , तो ये कही पीछे छोड़  दिए अब इनका सिर्फ एक उद्देश्य हो गया है और वो है पैसा बनाना।  और आज उसके लिए क्या नैतिक , क्या अनैतिक ? क्या अपराध ? क्या शिष्टाचार  सब एक बराबर दिखने लगा।  मीडिया में आ रहे तेजी से बदलाव व उसके प्रति जनमानस कि बदलती  सोच न केवल मीडिया कि विष्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है , बल्कि उसके कार्य प्रणाली पर भी शक कि सुई घूमती है।



मीडिया स्वामित्व :-
मीडिया स्वामित्व का अर्थ मीडिया पर पूर्ण कब्जा। द्वितीय युद्ध के बाद प्रथम और द्वितीय धारा के देश समझने लगे थे कि सूचना जिसके पास है वही समृद्ध और शक्तिशाली है। वहाँ से मीडिया स्वामित्व का प्रारम्भ माना जाता है।
मीडिया स्वामित्व के कई प्रकार हैं:-
ž एकल स्वामित्व – इसमें पूरी उस मीडिया कॉर्पोरेट का एक ही मालिक होता है।  
ž साझेदारी – यह स्वामित्व साझेदारी अधिनियम 1952 की धारा 4 के अनुसार लाया गया है । इसमें उस मीडिया कॉर्पोरेट के कई मालिक होते हैं। कई सेयर होल्डर के रूप में भी होते हैं।
ž मिश्रित पूंजी कंपनी – भारतीय अधिनियम 1956 की धारा 3 के अनुसार कंपनी का पणजीकरण होता है, इसमें अंशधारी का दायित्व कम होता है तथा व्यापार का विस्तार पूंजी बढ़ाकर किया जाता है।
ž ट्रस्ट- यह एक विशेष उद्देश्य हेतु स्थापना किया जाता है जो समाज के प्रति समर्पित होता है। इसे लाभ से ज्यादा मतलब नहीं होता है।
ž समितियां तथा संस्थाएं-  यह सीमित दायरे में जन सामान्य तक सूचना पाहुचने हेतु बनती है। यह भी लाभ मुक्त होती है।


इसके इतर आज क्रॉस मीडिया ओवनेरशिप और कोङ्ग्लुमरेट मीडिया ओवनेरशिप का चलन है जो वैश्विक स्तर पर स्वामित्व को प्रभाव में लाती है।   

बेन बैगडिकियान जैसे अमेरिकी मीडिया स्कॉलर मीडिया मोनोपॉली के खतरों के बारे में काफी पहले से ही आगाह करते रहे हैं। बैगडिकियान मीडिया में एकाधिकार की तरफ ले जाने वाले खतरे को दो तरह से समझाते हैं। वे मीडिया मालिकाने में उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) और लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं। अगर एक ही मीडिया कंपनी का सभी तरह के मीडिया यानी रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सिनेमा आदि में स्वामित्व रखने की इजाजत जारी रहेगी तो इससे देश के मीडिया के एक ही मालिक के कब्जे में आने का खतरा बढ़ जाएगा या वह बाकी मीडिया समूहों को किनारे लगाकर सबसे बड़ा और प्रभावी मीडिया समूह बन जाएगा (टाइम्स ग्रुप को इस्का एक उदाहरण कहा जा सकता है)। इस तरह बहुत सारे माध्यमों को एक ही मालिक या कंपनी के तहत केंद्रित हो जाने को उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) कहते हैं। इसके अलावा अगर मीडिया कंपनी का उसके वितरण और प्रसारण करने के साधनों पर भी मालिकाना होता है तो इसे लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) कहते हैं। ऐसी स्थिति में भी मीडिया कंपनी का मीडिया पर एकाधिकार का खतरा बढ़ता जाता है और ये अनैतिक तरीकों को बढ़ाया देता है। उदाहण के लिए जी ग्रुप के चैनलों में हॉरीजॉन्टल और वर्टीकल दोनों तरह का संकेद्रण देखा जा सकता है। एक तरह जी समूह समाचार, मनोरंजन, फिल्म, इंटरनेट, अखबार जैसे कई माध्यमों में सक्रिय है तो वहीं उसके पास अपने चैनलों को सीधे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए डिश टीवी सरीखी डायरेक्ट टू होम सुविधा भी है। इन हालात को देखकर स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशें कई हद तक वक्त की जरूरत लगती हैं। मीडिया संकेंद्रण विचारों की विविधता और लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि मीडिया मालिक अपने हितों के मुताबिक मीडिया का इस्तेमाल कर जनमत तैयार करते रहते हैं।





मीडिया स्वामित्व ॥ एक नजर भारत पर
भारतीय अर्थव्वस्था में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से बढ़ रहे सेक्टरों में से एक है। एक अध्ययन के अनुसार यह उद्योग 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और सन 2011 तक यह 1 हजार अरब रुपये का विशालकाय रूप धारण कर लेगा। देश में अखबारों के करीब 25 करोड़ पाठक हैं। इसके अलावा 35 करोड़ ऐसे लोग हैं जो पढ़ना-लिखना जानते हैं लेकिन अभी कोई पत्र-पत्रिकाएं नहीं पढ़ते। देश की आधे से ज्यादा आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है और मीडिया के लिए एक बड़ा संभावित बाजार है इससे जाहिर है कि देश में प्रिंट मीडिया के विस्तार की कितनी संभावनाएं मौजूद हैं। देश के 11 करोड़ घरों में टेलीविजन सेट हैं और इनमें से 65 प्रतिशत केबल सेटेलाइट से जुड़े हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि करीब 50 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं। रेडियो की पहुंच लगभग पूरे देश में हैं। नयी प्रोद्योगिकियों के आने से इंटरनेट और मोबाइल में पसर रही क्रांति से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में भारतीय मीडिया उद्योग कैसा रूप धारण कर लेगा।प्रिंट मीडिया का भारत में वृहद आकार है। आज करीब 93985 समाचार पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं। इसमें निजी स्वामित्व के कारण बड़े ग्रुप पूरी तरह से हावी हैं। इसका कारण यह है कि प्रिंट में स्वामित्व को लेकर कोई नियम अभी तक नहीं बनाए गए हैं। द्वितीय प्रेष कमीशन में स्वामित्व के नियमन के लिए मोनोपोली एंड रिस्टृक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेस एक्ट (1969) का सहारा लिया गया। जिसके तहत उन्हीं नियमों को लागू किया गया, जो आमतौर पर किसी वस्तु के उत्पादकों, मालिकों और सरकारी तथा निजी संस्थाओं के चेयरमैन या अध्यक्षों के लिए व्यापार के संदर्भ में नियम बनाए गए हैं।


इस वक्त भारत का 30 करोड़ का मध्यमवर्ग है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और मीडिया समेत सभी तरह के उत्पादों का एक बड़ा बाजार है। इस मध्यमवर्ग का लगातार विस्तार हो रहा है और जल्द ही यह यूरोपीय यूनियन से भी कहीं बड़ा बाजार बनने जा रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा वृद्धि दर अगर जारी रही तो कुछ वर्षों में ही भारत अमेरिका और चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी। (लेकिन यहां ये भी उल्लेख करना भी आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि और समूचे समाज के विकास में अंतर है, इस नयी अर्थव्यवस्था में करोड़ों लोग बाजारसे बाहर ही नहीं होंगे बल्कि नयी अर्थव्यवस्था में इनकी कोई उपयोगिता नहीं होगी। भारतीय अर्थव्यवस्था, मीडिया और मनोरंजन उद्योग और बाजार में इस तरह की वृद्धि और विस्तार के साथ ही देश के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में इसके दखल और प्रभाव भी निरंतर गहरा और व्यापक होता जा रहा है। मीडिया के इस उद्योग में समाचार पत्र, रेडियो से लेकर सिनेमा संगीत और वीडियो गेमिंग जैसे नए उत्पाद भी आते हैं। इस उद्योग के मौटे तौर पर समाचार और मनोरंजन की दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। सामाचार सेक्टर का हिस्सा मात्र 8 प्रतिशत होने के बावजूद भी यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है वहीं मनोरंजन का प्रभाव समाज और संस्कृति पर अधिक होता है। लेकिन मीडिया एक वैचारिक और सांस्कृतिक उद्योग भी है और इस रूप में मीडिया का हर उत्पाद राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृति का एक संपूर्ण पैकेज होता है।

इस संदर्भ में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की 2008-09 की वार्षिक रिपोर्ट के ये आंकड़े भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि देश के 394 पंजीकृत टेलीविजन चैनलों में 211 समाचार चैनल हैं। सन 2000 में ही निजी क्षेत्र में टेलीविजन का प्रवेश हुआ था लेकिन 9 वर्षों में ही इसने विशाल रूप घारण कर लिया है और राष्ट्रीय जीवन में एक अहम भूमिका अख्तियार कर ली है। आज भी सरकार के पास नए चैनलों के जितने भी आवेदन पत्र विचाराधीन हैं उनमें अधिकांश समाचर चैनलों के ही आवेदन है। मीडिया के स्वामित्व में भी परिवर्तन आ रहे हैं। परंपरागत उद्योगपतियों के अलावा हाल ही में मालामाल हुए उद्यमियों का समूह भी है जो विभिन्न कारणों से माडिया में प्रवेश कर रहे हैं भले ही ये उनके लिए घाटे का सौदा क्यों ना हो। इस घाटे की भरपाई वे अपने अन्य व्यापार से पैदा होने वाले मुनाफे से पैदा करते हैं। 
इसके समानांतर मीडिया के परंपरागत चरित्र और स्वरूप में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। मीडिया सार्वजनिक हित के बजाय एक लाभकारी उद्योग बन रहा है जिसमें समाचार पेप्सी-कोक तरह उपभोग की वस्तु बन रहा है जिसका मकसद उपभोक्ताओं को आकृष्ट करना है। इसी कारण मीडिया में एक ऐसी होड़ मची हुई है जो किसी भी कीमत पर नयी अर्थव्यवस्था से जन्मे उपभोक्ता को जीतना चाहती है। नब्बे के दशक में शुरु किए गये नवउदारवादी सुधारों के उपरांत मीडिया ऐसा उद्यम बन गया है जिसका मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना है और जो समाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है।
इसके अलावा मीडिया के स्वामित्व का भी केन्द्रीकरण हो रहा है और इसकी अन्तर्वस्तु की विविधता संकुचित होती जा रही है। राजधानी दिल्ली का ही उदाहरण लें तो 15-20 वर्ष पहले यहां अनेक दैनिक अखबार थे जो हमारे राष्ट्रीय जीवन के विविध परिपेक्ष्य का प्रितिनिधित्व करते थे- टाइम्स ऑफ इंडिया मध्यमार्गी माना जाता था, हिन्दुस्तान टाइम्स सरकार समर्थक था तो इंडियन एक्सप्रेस के सरकार विरोधी तेवर हुआ करते थे। स्टेट्समेन एक दक्षिणपंथी अखबार था तो पैट्रियॉट वामपंथी रुझान रखता था। मदरलैंड जनसंघ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता था तो नेशनल हेराल्ड क्रांग्रेस का प्रवक्ता था। लेकिन आज दिल्ली की मीडिया में ये विविधता खत्म हो गयी है और टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स का आधिपत्य कायम हो गया है। इन दोनों ही अखबारों के संपादकीय अन्तर्वस्तु में कोई बुनायीदी अंतर नहीं है और इनकी होड़ बाजार हड़पने तक ही सीमित है। इसके साथ ही आलोचनात्मक और गंभीर राजनीतिक पत्रकारिता हाशिये पर चली गयी है। आज मीडिया राष्ट्र और समाज के सामने एक दिन में समान रूप से 4-5 ऐसी घटनाओं को प्रस्तुत नहीं करता जिससे राष्ट्र और समाज का ऐजेंडा तय हो। कई बार आम लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी घटनाएं महत्वपूर्ण हैं और कौन सी नहीं। परंपरागत रूप से एक संपादक, एक पत्रकार लोगों की प्राथमिकताओ को भी तय करता था और इस तरह राजनीति को प्रभावित करने और सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने में अहम भूमिका निभाता था। 



वैश्वीकरण का मीडिया स्वामित्व पर प्रभाव  :-

आज के परिदृश्य में एक अन्य रूप में भी मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है और 10-15 वर्ष पहले का स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया का ढांचा भी ध्वस्त हो गया है। क्षेत्रीयने स्थानीयको हड़प लिया है, ‘राष्ट्रीय’ ‘क्षेत्रीयमें प्रवेश कर रहा है तो क्षेत्रीयने राष्ट्रीयमीडिया में घुसपैठ शुरु कर दी है। चंद बड़े संस्थान बाजार के बहुत बड़े हिस्से को नियंत्रित करते हैं। इस प्रक्रिया के जारी रहने से मीडिया का निगमीकरण हो जाएगा और उद्योग, व्यापार और मीडिया के बीच की अंतररेखा विलुप्त हो जाएगी। यह रुझान इस बात से भी स्पष्ट होता है कि मुनाफा कमाने और बाज़ार कि हडपने के लिए किस तरह समाचार के मूल स्वभाव से से भटकाव पैदा हो रहा है और तथ्य और कल्पना का का विचारहीन मसाला पेश किया जा रहा है।
मीडिया के स्वामित्व के केन्द्रीयकरण और अंतर्वस्तु के संकुचित होने के बाद लोगों को बड़ी मात्रा में समाचार और सूचना उपलब्ध हैं और यह दावा किया जाता है कि मुक्त अर्थव्यवस्था में लोगों के पास विकल्पों की भरमार है। लेकिन वास्तविक रूप से लोगों के विकल्प बहुत सीमित हो गये हैं और हर समाचार संगठन लगभग एक ही तरह के उत्पाद प्रस्तुत कर रहा है। टेलीविजन के क्षेत्र के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि यह बाजार विरोधी है जहां हर दुकान एक ही ऐसा उत्पाद बेचा जा रहा है जिसमें सबसे अधिक मुनाफा कमाने की क्षमता हो।
मीडिया के स्वामित्व और अंतर्वस्तु में इन नकारात्मक रुझानों के समानांतर मीडिया की ताकत बढ़ती जा रहा है और लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक मीडिया पर निर्भर होता जा रहा है। राजनीतिक प्रचार का स्वरूप बदल गया है- अब घर-घर जाकर पहले जैसा प्रचार नहीं होता और ऐसी रैलियां भी नहीं होती कि नेताओ को सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़े। अब सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया जाता है कि किसी भी राजनीतिक गतिविधि के लिए कितना माडिया कवरेज किया जाए और इस कवरेज के लिए प्रबंधन की नयी तकनीकें विकसित हो गयी है। नेताओं की ऐसी जमात पैदा हो गयी है जो लोगों से जुड़ने के बजाय टेलीविजन के पर्दे पर परफॉर्म करने में ही अधिक दक्ष है। बुनियादी मुद्दों पर गंभीर राजनीतिक विमर्श की बजाय तू-तू मै-मैं का शोर ही अधिक रहता है। व्यापारिक होड़ में फंसे मीडिया को भी यही रास आता है और आज सूचना के मनोरंजनीकरण के बाद राजनीति का भी मनोरंजनीकरण हो रहा है। राजनीति के मनोरंजन के क्षेत्र में प्रवेश करने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की मीडिया की भूमिका में भारी ह्रास हुआ है। आज का मीडिया राजनीतिक जीवन का सतहीकरण कर रहा है और राजनीतिक जीवन में पनप रहे नकारात्मक रुझानों पर अंकुश लगाने की अपनी परंपरागत भूमिका से दूर हो रहा है। दूसरी ओर समाचारों के मूल स्वभाव से भी छेड़छाड़ की जा रही है जिसकी वजह से कई समाचारीय घटनाएं समाचार नहीं बनती और अनेक गैर समाचारीय घटनाएं बड़ी घटनाओं के तौर पर पेश की जाती है। इस प्रक्रिया के कारण लोग अनेक उन बड़ी घटनाओं से अवगत नहीं होते जिनका संबंध उनके जीवन से होता है।
निष्कर्ष :-
मीडिया के व्यापारीकरण का ऐसा दौर पश्चिम के विकसित देशों में भी आया लेकिन यह तब हुआ जब पूरा समाज ही विकसित होकर मध्यमवर्ग में तब्दील हो चुका था। मध्यमवर्ग के पास इतना बौद्धिक कौशल होता है कि वह ऐसे समाचारों को स्वीकार नहीं करता जिनका वैज्ञानिक आधार न हो और जो अंधविश्वास पर टिके हों। भारत जैसे विकासशील समाज में स्थिति भिन्न है। इस तरह के समाचारों के नकारात्मक परिणामों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पहले मध्यप्रदेश में एक अनजाने ज्योतिषि ने अपनी जन्मपत्री के आधार पर किसी एक दिन 4 बजे अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी की थी। दो टेलीविजन चैनल इस मृत्युको लाइव प्रसारित कर रहे थे लेकिन ज्योतिषि की भविष्यवाणी सही नहीं निकली। यह घटना इसलिए महत्वपूर्ण और गंभीर है कि अगर करोडों में एक प्रतिशत भी संभावना के चलते ज्योतिषि की 4 बजे मौत हो जाती तो इस देश के एक बड़े सामाजिक तबके की वैज्ञानिक सोच कई दशक पीछे चली गई होती। हिंदी सिनेमा लोकप्रिय भावनाओं को पकड़कर बोक्स ऑफिस हिट होने के लिए जाना जाता है. हाल ही की एक मूवी "पा" में जिस तरह समाचार मीडिया को निशाना बनाकर आम लोगों की भावना को पकड़ने की कोशिश की गयी है, इसके भी गहन विश्लेषण की जरुरत है कि न्यूज़ मीडिया किधर जा रहा है ? यह सवाल भी उठता है कि क्या आज न्यूज़ मीडिया कॉर्पोरेट पॉवर का एक अंग भर बनाकर नहीं रह गया है जिसमें पत्रकार की भूमिका बहुत कम रह गयी है
आज का मीडिया अधिकाधिक उस सामाजिक तबके पर केन्द्रित है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और 5 हजार करोड़ के विज्ञापन का मुख्य लक्ष्य है। यही वह तबका है जो उपभोक्तावाद की गिरफ्त में है और नए-नए उत्पादों पर टूट रहा है। इन रुझानों के कारण मीडिया के साथ साख और विश्वसनीयता पर संकट के गहरे बादल मंडरा रहे हैं। एक उपभोक्ता मीडिया उत्पादों का भले ही कितना भी उपभोग क्यों ना करे लेकिन मीडिया को लेकर इसी के अंदर का नागरिक विचलित है, आक्रोश में है। इससे एक जटिल परिस्थिति पैदा हो रही है-एक ऐसा मीडिया जिस पर लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक निर्भर होता चला जा रहा है वही मीडिया अपनी साख और विश्वसनीयता को खो रहा है। ऐसे में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में मीडिया की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल पैदा हो रहे हैं।
मीडिया और समाज के बीच एक खाई पैदा हो गयी है। व्यापारीकृत मीडिया काफी हद तक समाज का प्रतिबिंब नहीं रह गया है बल्कि समाज को प्रभावित करने की इसकी क्षमता संकीर्ण होती जा रही है। देश के राजनीतिक जीवन में पनप रही विकृतियों के प्रति मीडिया उदासीन दिखाई पड़ता है। एक ओर विज्ञापन उद्योग, मीडिया और उपभोक्ता के पारस्परिक संबंध इस विकासशील समाज में अभी पारिभाषित ही हो रहे हैं तो दूसरी ओर भारतीय समाज, लोकतंत्र और मीडिया के बीच के संबंध एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिनकी कोई स्पष्ट तस्वीर खींचना आज की ताऱीख में संभव नहीं दिखाई देता है।
संदर्भग्रंथ
ž सम्पूर्ण पत्रकारिता – अर्जुन तिवारी
ž http://www.thehoot.org/web/home/story.php?storyid=6053
ž Mass Communication In India: A Sociological Perspective By J V Vilanilam
ž http://www.newindianexpress.com/nation/Paid-news-cross-media-ownership-affect-media-objectivity-Ansari/2013/11/16/article

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