vaibhav upadhyay

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Tuesday, April 14, 2015


प्रकाश झा की फिल्में और सामाजिक चेतना में उनकी भूमिका   


सारांश
          शोध के क्षेत्र के रूप में सिनेमा शुरू से ही एक रोचक विषय रहा है | सिनेमा उस महासागर की तरह है जिसमें शोधकर्ता डूबता-उतलाता रहता है | फिल्मों में सामाजिक चेतना आरम्भ से ही चर्चा का विषय है | वर्तमान समय में हिंदी सिनेमा पाश्चात्य फिल्म शैली से काफी प्रभावित नजर आता है | सिने-जगत में ऐसे निर्माता-निर्देशकों की भीड़ है जिनका एकमात्र उद्देश्य सिनेमा के जरिये अथाह धन कमाना है, उनके हिसाब से फिल्मों में सामाजिक चेतना केवल सामानांतर फिल्मों का विषय है | ऐसे स्वार्थलोलुप फिल्म-व्यवसायियों ने सिनेमा को सामाजिक एवं सांस्कृतिक ह्रास का माध्यम बना कर रख दिया है | अबोध युवा पीढ़ी इनकी फिल्मों की वजह से पथभ्रष्ट होते जा रही है | गनीमत है कि भारतीय सिनेमा में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी फिल्मों का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना ही नहीं है | इनकी फिल्में दर्शकों में सामाजिक चेतना का विकास करती हैं | ऐसे फिल्म-व्यवसायियों में प्रकाश झा का नाम निश्चित रूप से अग्रणी है | अपनी फिल्मों के द्वारा समाज को गंभीर समस्याओं के प्रति जागरूक करने के लिए प्रकाश झा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहे जाते हैं |
प्रस्तुत लघु शोध में प्रकाश झा के निर्देशन में बनी हिंदी फीचर फिल्मों की विषय-वस्तु का अध्ययन कर उनमें सामाजिक चेतना का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है | झा द्वारा अबतक निर्देशित सभी 13 फिल्मों को इस शोध में शामिल किया गया है | अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति का प्रयोग कर इन फिल्मों की कथा-वस्तु का सावधानीपूर्वक निष्पक्ष होकर अध्ययन किया गया है | शोध के निष्कर्ष से सामने आया कि इक्की-दुक्की फिल्मों को छोड़कर प्रकाश झा की सभी फिल्में किसी न किसी सामाजिक चेतना से प्रेरित होती हैं | अपनी फिल्मों में प्रकाश झा का हमेशा यही प्रयास रहता है कि वह दर्शकों के सामने समाज की उन घटनाओं को यथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत कर सकें जो किसी सभ्य समाज के लिए चिंता का विषय है |
प्रमुख शब्द  - सामाजिक चेतना, निर्देशक, सिनेमा, फिल्म, अंतर्वस्तु विश्लेषण, विमर्श |


परिचय
          सिनेमा आरम्भ से ही मनोरंजन के साथ-साथ लोगों को जागरूक करने का एक सशक्त माध्यम रहा है | चूँकि भारत जैसे जनसँख्या बहुल देश में सिनेमा सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है इसलिए लाजमी है कि यहाँ फिल्मों से सामाजिक उत्तरदायित्व की अपेक्षा कुछ अधिक की जाये | कोई भी जनसंचार माध्यम तभी अपने सफलता के परचम लहरा सकता है जब वह लोगों की संवेदनाओं को अपने से जोड़ सके | यही सच्चाई हिंदी फिल्मों पर भी लागु होती है, हर साल सैकड़ो फिल्मों की भीड़ में वही फिल्म दर्शकों के लिए यादगार बनती है जिसमे सामाजिक चेतना का पूट हो | परन्तु यह घोर विडंबना है कि यद्यपि सिनेमा ने सौ सालों से भी अधिक का लम्बा सफर तय कर लिया है फिर भी इसने सामाजिक सरोकार के एक माध्यम की तुलना में  एक व्यवसाय के रूप में अधिक प्रगति की है |
                हमारे यहाँ  मुख्य धारा की जो भी फिल्में बनती है और जिसे बहुसंख्य दर्शक देखना पसंद करते हैं, वे ऐसी फिल्म होती है जहाँ हलके-फुल्के विषय होते हैं, मधुर गीत-संगीत होता है, नाच-गाने होते हैं | भारत जैसे देश में जहाँ सिनेमा सबसे बड़ा व्यवसाय  है, यही मुख्यधारा का सिनेमा है और इसी के बूते हमारा हिंदी फिल्म उद्योग चल रहा है | इससे इतर जो निर्देशक थोड़े गंभीर विषयों का चुनाव करते हैं और ऐसी फिल्में जो किसी विशिष्ट कथानक पर आधारित होती हैं, उन्हें सामानांतर फिल्म या कला फिल्म की श्रेणी में डाल दिया जाता है | परन्तु जिस प्रकार हर शाम की एक सुबह होती है उसी प्रकार सिनेमा का दुर्भाग्य भी अब समाप्ति की ओर अग्रसर है | वंशवाद और कुछ एक प्रभुत्व वर्गों के चंगुल से निकलकर हिंदी सिनेमा भी अब प्रखर हो रहा है | अब उन्ही फिल्मों की चर्चाएं होती हैं जिनका आधार हलके-फुल्के विषयों की अपेक्षा कुछ हटके होता है | फिल्म में सामाजिक चेतना का होना अब किसी भी फिल्म के सफल होने एवं सराहे जाने के लिए मुख्य आवश्यकता बन चूका है | वर्तमान में ऐसे निर्माता, निर्देशक और कलाकार अब सिनेमा जगत की मुख्यधारा में आ गए हैं जिनके लिए सिनेमा एक व्यवसाय से भी अधिक कुछ है | वर्तमान समय में श्याम बेनेगल, शेखर कपूर, प्रकाश झा, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, चंद्रप्रकाश द्विवेदी, अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धुलिया, विशाल भारद्वाज, मधुर भंडारकर, आमिर खान जैसे दिग्गजों की लम्बी फेहरिस्त ने  सिनेमा की मुख्यधारा को ही अद्भुत ढंग से परिवर्तित कर दिया है | भारतीय सिनेमा को अनावश्यक कृत्रिमता और फूहड़ कल्पनाशीलता के दलदल से निकालने में इनलोगों की मुख्य भूमिका रही है | दर्शक इनकी फिल्मों से केवल मनोरंजन ही प्राप्त नहीं करते  बल्कि उन हकीकतों से भी अवगत होते हैं जो अबतक हाशिये पर पड़े-पड़े दम तोड़ रहे थें | फिल्म व्यवसाय से जुड़ा हर व्यक्ति अब गंभीर मुद्दों या फिर किसी संवेदनशील विषय पर काम करना चाहता है |
वर्तमान दशक में मुख्यधारा की फिल्मों की गुणवत्ता जिस अप्रत्याशित ढंग से बढ़ी है यह अवश्य ही शोध का विषय है | यदि किसी निर्देशक को उसकी फिल्मों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो सिनेमा को सामाजिक सन्दर्भ के साथ परोसने वालो में प्रकाश झा का नाम सबसे आगे है | अपनी संवेदनशील फिल्मों के माध्यम से इन्होने हिंदी सिनेमा को एक नयी दिशा प्रदान की है | यह शोध पत्र प्रकाश झा की फिल्मों की अंतर्वस्तु का आकलन कर उनकी फिल्मों की सामाजिक चेतना का अध्ययन करने का एक व्यवस्थित प्रयास है |

साहित्य अवलोकन
 हमारे देश का पाठक वर्ग शुरुआत से ही सिनेमा से जुड़े तथ्यों में गहरी रूचि रखता है यही कारण है की भारत में सिनेमा से सम्बंधित साहित्य की कोई कमी नहीं है | भारतीय हिंदी सिनेमा पर आधारित कई पुस्तकों ने सिने-प्रेमियों को लाभान्वित किया है जिसमे सबसे बड़ा नाम दिनेश रहेजा और जीतेन्द्र कोठारी की किताब ‘इंडियन सिनेमा: द बॉलीवुड सागा’ का है, 2004 में प्रकाशित इस किताब ने हिंदी फिल्मों के व्यवसायिक पक्ष से लेकर अबतक के सामाजिक उत्तरदायित्व तक का सम्पूर्ण निचोड़ पाठकों के सामने बड़ी ही सरलता से प्रस्तुत किया था |
          सिनेमा के सामाजिक सन्दर्भ पर अध्ययन की दृष्टि से जवरीभल्ल  पारख की किताब ‘हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र’ अत्यधिक प्रशंसनीय है | पारख ने अपनी पुस्तक के माध्यम से बॉलीवुड की फिल्मों में सामाजिक चेतना का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है | समकालीन भारतीय फिल्मों के विषयों पर गहरा प्रकाश डालती विजय अग्रवाल की किताब ‘आज का सिनेमा’ भी फिल्मों के सामाजिक सरोकारों पर एक व्यापक शोध है, इस पुस्तक के माध्यम से अग्रवाल ने वर्तमान हिंदी सिनेमा का तुलनात्मक अध्ययन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है |
      हिंदी सिनेमा की हर बारीकी पर व्यापक दृष्टिकोण रखने वाले प्रसिद्ध मीडियाकर्मी अजय ब्रम्हात्मज ने भी इस दिशा में सराहनीय काम किया है उनकी पुस्तकें ‘सिनेमा की सोच’ और ‘सिनेमा समकालीन सिनेमा’ समस्त फिल्म जगत के आवश्यक पहलुओं को परत दर परत खोलती हैं | इन्होने बिलकुल तटस्थ भूमिका निभाते हुए उत्कृष्ट फिल्मों का समालोचनात्मक तरीके से व्यवस्थित अध्ययन किया है |
          भारतीय सिनेमा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से लेकर वर्तमान सरोकारों का क्रमबद्ध अध्यन विनोद भारद्वाज ने अपनी किताब ‘सिनेमा: कल, आज, कल’ में किया है  ऐसी ही वृहत सामग्री मृत्युंजय द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘सिनेमा के सौ बरस’ में भी मिलती है | इन किताबों के लेखकों ने निष्पक्ष भाव से पाठकों को भारतीय सिनेमा की हर गतिविधियों से अवगत कराया है जो सिनेमा के बारे में लोगों की सोच को और भी व्यापक बनती है |

शोध की उपियोगिता
          सिनेमा आरम्भ से ही अध्ययन का एक रोचक विषय रहा है | सिनेमायी रुपहले परदे के आकर्षक प्रकाश में झाँकने का प्रयास हमेशा से साहित्यकारों के लिए एक चुनौती का कम रहा है | मीडिया के नजरिये से भी सिनेमा आज सबसे अधिक सुर्खिया बटोरने वाला क्षेत्र बन चूका है | जयप्रकाश चौकसे, खालिद मोहम्मद, कोमल नाहटा, ओमार कुरैशी जैसे प्रसिद्ध मीडियाकर्मियों ने हिंदी सिनेमा के छुपे हुए तत्वों को बड़ी चतुराई से लोगों के सामने प्रस्तुत किया है | परन्तु यह भी एक कड़वा सच है सिनेमा की व्याख्या इसके रुपहले चकाचौंध से परे होकर फिल्मों को सामाजिक परिवर्तन का सबसे उपयुक्त माध्यम समझते हुए बहुत कम हुयी है | आज ऐसे सिनेमायी शोधों की भरमार है जो पूर्वाग्रह से ग्रसित और पक्षपातपूर्ण निष्कर्षों से प्रायोजित नजर आते हैं | यही कारण है कि अभी भी सिनेमा में गुणवत्तापूर्ण शोधों की अत्यंत आवश्यकता है | चूँकि सिनेमा का कर्तव्य मात्र इतना ही नहीं है कि वह दर्शकों के सामने कोई भी सामग्री अनावश्यक नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत करे बल्कि समाज के यथार्थ से लोगों को स्पष्ट रूप से अवगत कराये | किसी भी फिल्म के कथानक को वास्तविकता की कसौटी पर रखकर दर्शकों के समक्ष प्रभावी ढंग से परोसना निर्देशक का कार्य है, तभी दर्शक-वर्ग भी समाज की उस कड़वी सच्चाई पर चिंतन कर सकता है जो उनके जीवन में शूल बनकर सम्पूर्ण मानव जगत को प्रभावित कर रही है |  ऐसे में किसी विशेष निर्देशक की फिल्मों में सामाजिक सरोकारों का निष्पक्ष अध्ययन प्रस्तुत करने में  यह लघु शोध-पत्र अवश्य ही सहायक होगा |



शोध उद्देश्य
          इस लघु-शोध का उद्देश्य यह जानना है कि वे कौन से तत्त्व है जो प्रकाश झा के निर्देशन में बनी फिल्मों को एक ऐसी श्रेणी में डालते है जो दर्शकों की संवेदना प्राप्त करने में सबसे सफल रहती हैं | एक कथा-वस्तु के रूप में केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्मों को जो सराहना मिली उसकी पृष्ठभूमि क्या है | देशी-विदेशी कई बड़े फिल्म पुरस्कार प्राप्त झा की फिल्मों में ऐसे कौन से विषय हैं जो उन्हें यथार्थवादी फिल्मों की संज्ञा देते हैं | अपनी फिल्मों के विषय-वस्तु के रूप में झा ने समाज में व्याप्त किस प्रकार की कुरीतिओं, समस्याओं एवं घटनाओं को चुना है जिससे दर्शक-वर्ग सबसे अधिक प्रभावित है | झा ने किस प्रकार की कहानियों को अपने फिल्मों का विषय बनाया है जो हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में बने रहते हुए भी उन्हें और उनकी फिल्मों को मनोरंजन से कहीं अधिक के लिए यादगार बनाती हैं |

शोध परिसीमन
          प्रकाश झा ने सिनेमा के क्षेत्र में 1974 में पदार्पण किया था और उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी अंडर द ब्लू जिसका प्रथम प्रदशन 1975 में हुआ | यह विशुद्ध रूप से एक डाक्यूमेंट्री फिल्म थी | प्रकाश झा का एक स्वतंत्र प्रोडक्शन  हाउस भी है जिसे पीजेपी अर्थात प्रकाश झा प्रोडक्शन के नाम से जाना जाता है | यह प्रोडक्शन हाउस फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अत्यंत सक्रिय है | प्रस्तुत शोध में केवल उन्ही फिल्मों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है जो प्रकाश झा के द्वारा निर्देशित है ना कि किसी अन्य प्रकार से उनसे जुडी हुई हैं | दूसरी ओर यह शोध केवल प्रकाश झा के द्वारा निर्देशित हिंदी फीचर फिल्मों पर ही आधारित है ना की उनके द्वारा निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्मों पर या उन फिल्मों पर जिनके वो या तो निर्माता हैं या केवल लेखक या संपादक | प्रकाश झा की प्रदर्शित फिल्मों को ही इस शोध में शामिल किया गया है, उनकी ऐसी फिल्में जो किसी कारणवश पूरी नहीं बन पायीं या अभी निर्माणाधीन हैं, इस शोध का हिस्सा नहीं हैं | सैंपल के अंतर्गत प्रकाश झा की उन्ही फिल्मों को लिया गया है जो बतौर निर्देशक प्रकाश झा द्वारा बनायी गयीं हैं |



शोध प्रविधि
          प्रस्तुत शोध में अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति का प्रयोग किया गया है | अर्थात प्रकाश झा द्वारा निर्देशित सभी हिंदी फीचर फिल्मों को देखने के बाद उनका विश्लेषण कर एक स्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त करने का प्रयास किया गया है |
          अंतर्वस्तु विश्लेषण को सामग्री विश्लेषण के नाम से भी जाना जाता है | यह मीडिया शोध की एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट पद्धति है | अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति से तात्पर्य उस सामग्री के गहन अध्ययन से है जिसे पाठकों, दर्शकों या श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है | अंतर्वस्तु विश्लेषण का प्रयोग सर्वप्रथम द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूरोप की गुप्तचर संस्थाओं द्वारा जर्मनी के  रेडियो कार्यक्रमों का विश्लेषण करने के लिए किया गया | इस प्रकार जर्मनी की रेडियो सामग्री का विश्लेषण कर यूरोपीय खुफिया तंत्रों ने जर्मन सैनिकों की तत्कालीन वस्तुस्थिति का अनुमान लगाया जो आश्चर्यजनक ढंग से एकदम सटीक था |
          मीडिया शोध की एक पद्धति के रूप में अंतर्वस्तु विश्लेषण का उल्लेख सर्वप्रथम 1952 में बर्नार्ड बेरेल्सन ने अपनी किताब ‘कंटेंट एनालिसिस इन कम्युनिकेशन रिसर्च’ में विस्तारपूर्वक किया | बेरेल्सन के अनुसार, “अंतर्वस्तु विश्लेषण जनसंचार शोध की ऐसी प्रविधि है जो मीडिया की छुपी हुई अदृश्य सामग्रियों को भी लक्षित जनसमूह तक पहुँचाने में कारगर है” | वर्तमान समय में संचार माध्यमों में प्रतिस्पर्धा की वृद्धि के साथ ही अंतर्वस्तु विश्लेषण की लोकप्रियता भी एक शोध प्रविधि के रूप में बढ़ी है | ‘इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिकेशन’ ने अपनी रिपोर्ट में भारत में स्नातकोत्तर स्तर पर होने वाले शोध में अंतर्वस्तु विश्लेषण का प्रतिशत अधिकतम बताया है | ‘कम्युनिकेशन एबस्टरहक्ट्स’ के अनुसार वर्तमान दशक में 70 प्रतिशत से अधिक मीडिया शोधों के अंतर्गत अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति का ही प्रयोग है | अर्थात स्पष्ट है कि यह शोध की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रचलित पद्धति है |
अंतर्वस्तु विश्लेषण में तथ्यों का वस्तुनिष्ठ, क्रमबद्ध एवं परिमाणात्मक अध्ययन किया जाता है | यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा जटिल तथा अस्पष्ट गुणात्मक सामाजिक तथ्यों के स्वरुप को सरल एवं बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया जाता है | समय के साथ जनसंचार माध्यमों की सामाजिक चेतना का अध्ययन इस पद्धति की सहायता से निष्पक्ष होकर किया जा सकता है | अतः अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति इस शोध के लिए सबसे उपयुक्त प्रविधि है |


शोध-प्रक्रिया
           प्रस्तुत लघु-शोध का समग्र फिल्म निर्देशक प्रकाश झा और उनकी फिल्में हैं | प्रकाश झा के निर्देशन में बनी सभी हिंदी फीचर फिल्मों का इस शोध में सूक्ष्मता से अध्ययन किया गया है | सबसे पहले प्रकाश झा का व्यक्तिगत परिचय संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है, तत्पश्चात उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों को बारीकी से देखते हुए सभी की कथा-वस्तु में सामाजिकता का विश्लेषण किया गया है | प्रकाश झा के व्यक्तिगत जीवन की जानकारी प्राप्त करने में इन्टरनेट आधारित विक्कीपीडिया ने अहम भूमिका निभायी, फिर भी सत्यता की संतुष्टि के लिए प्रकाश झा प्रोडक्शन की ऑफिसियल वेबसाइट की सहायता ली गयी है |
            इस शोध के लिए पहला कदम था प्रकाश झा निर्देशित सभी फिल्मों को देखना जिसके आधार पर इन फिल्मों की अंतर्वस्तु का विश्लेषण किया जा सके | यद्यपि प्रकाश झा की नयी फिल्मों को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई परन्तु उनकी शुरुआती फिल्मों को प्राप्त करने में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा | इन फिल्मों में झा की पहली फिल्म हिप हिप हुर्रे, दामुल, परिणति और बंदिश शामिल है | इस प्रकार सभी फिल्मों का संग्रह कर लेने के बाद उन्हें उनके प्रदर्शन-वर्ष के आधार पर पुराने से नए की श्रेणी में क्रमबद्ध रूप से व्यवस्थित किया गया | प्रत्येक फिल्म को इसी श्रेणी के अनुसार देखा गया, अर्थात सबसे पुरानी फिल्म को सबसे पहले, फिर उसके बाद प्रदर्शित फिल्म को और यही प्रक्रिया तब तक चलती रही जब तक अंतिम सबसे शीघ्र प्रदर्शित फिल्म को देख नहीं लिया गया | सही क्रम पर ध्यान देना इसलिए आवश्यक था क्योंकि इससे झा की फिल्मों में सामाजिक चेतना के उतार-चढ़ाव का सही आकलन करने में सुविधा हुई | प्रत्येक फिल्म को देखने के बाद उसकी समीक्षा लिखी गयी | समीक्षा में इस बात पर अत्यधिक ध्यान दिया गया कि फिल्म की विषय-वस्तु का आधार किस प्रकार की सामाजिक परिस्थितियों से प्रेरित था | इस प्रकार प्रस्तुत शोध में फिल्म की अंतर्वस्तु का गहन परिक्षण का लेने के बाद निष्पक्ष रूप से निष्कर्ष देने का यथासंभव प्रयास किया गया है |

सैंपल का आकार
                शोध में प्रकाश झा द्वारा अबतक निर्देशित सभी 13 फिल्मों का सैंपल लिया गया है | इन फिल्मों के नाम हैं – हिप हिप हुर्रे, दामुल, परिणति, बंदिश, मृत्युदंड, दिल क्या करे, राहुल, गंगाजल, अपहरण, राजनीति, आरक्षण, चक्रव्यूह, और सत्याग्रह | इन फिल्मों को देखकर उनका विश्लेषण किया गया है | फिल्मों के प्रदर्शन-वर्ष  में सामाजिक वस्तुस्थिति का अनुमान लगाने के लिए तत्कालीन मीडिया और आलोचकों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया गया है | प्रत्येक फिल्म के स्वतंत्र अध्ययन के लिए हर फिल्म को देखने के बाद एक दिन विराम लिया गया है जिससे पूर्वगामी अवरोध निष्कर्ष को प्रभावित न करे |

प्रकाश झा : व्यक्तिगत परिचय
           हिंदी फिल्मों के सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक और पटकथा लेखक प्रकाश झा का जन्म 27 फरवरी 1952 को बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारण जिले के बेतिया में हुआ था | इनकी प्रारंभिक शिक्षा तिलया के सैनिक स्कूल और बोकारो के केंद्रीय विद्यालय में हुई | स्नातक की शिक्षा के लिए इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में भौतिक विज्ञान पढ़ने के लिए दाखिला लिया परन्तु इनका कलात्मक मन फिजिक्स के उबाऊ फॉर्मुलों में नहीं रम सका | परिणामस्वरूप, झा ने स्नातक की पढ़ाई एक साल के बाद ही छोड़ दी और मुम्बई जा कर पेंटर बनने का निश्चय किया | अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए झा ने जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लेने के उद्देश्य से तैयारी करनी शुरू कर दी | इसी दौरान इन्हें ‘धर्म’ फिल्म की शूटिंग देखने का मौका मिला, जिसके बाद ये सिनेमा की रचनात्मकता से बहुत अधिक प्रभावित हुए और फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में गहरी रूचि रखने लगें | सिनेमा के क्षेत्र में ही कैरिअर बनाने के उद्देश्य से झा ने 1973 में भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे में फिल्म-संपादन का कोर्स करने के लिए प्रवेश लिया परन्तु दुर्भाग्यवश तुरंत ही संस्थान के छात्रों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन के कारण संस्थान को कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया | इस कारण प्रकाश झा यह कोर्स भी पूरा नहीं कर पाए | अंततः ये मुम्बई चले आये और इन्होंने सिनेमा के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य करना शुरू कर दिया, तब से लेकर आज तक इन्होंने कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा |
            प्रकाश झा ने रंगमंच एवं  हिंदी फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री दीप्ति नवल से शादी की है | उनकी दिशा नाम की एक बेटी है जिसे इस दम्पति ने गोद लिया है | अपनी फिल्मों के लिए कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके प्रकाश झा ने एक निर्देशक के तौर पर भारतीय सिनेमा पर गहरी छाप छोड़ी है | इनकी फिल्में अपनी सामाजिक-राजनीतिक कटाक्ष के कारण हमेशा चर्चा में रहती हैं | प्रकाश झा सामाजिक संस्था अनुभूति के चेयरमैन हैं जो 1991 से बिहार की गंभीर समस्याओं को मिटाने की दिशा में सक्रिय है | इनका गहरा झुकाव राजनीति की तरफ भी है और ये 2004 एवं 2009 में बिहार के चम्पारण से ही लोकसभा का चुनाव लड़ चुके है परन्तु दुर्भाग्यवश  इन्हें दोनों बार हार का सामना करना पड़ा है | वर्तमान में प्रकाश झा प्रोडक्शन के नाम से इनका स्वतंत्र प्रोडक्शन हाउस है तथा पटना में पी&एम मॉल के नाम से मॉल भी है |

विश्लेषण
           भारत में सिनेमा की शुरुआत कला प्रेमियों द्वारा समाज की वास्तविकता से लोगों को अवगत कराने के उद्देश्य से हुई थी | इसलिए तब के निर्माता-निर्देशक फिल्म के विषय-वस्तु के रूप में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे को अवश्य रखते थें | यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो अछूत कन्या, किसान कन्या, दौलत का नशा, दो बीघा जमीन, प्यासा, आदमी, रोटी, मदर इंडिया जैसी कई फिल्में है जिनकी कहानियों ने अपनी सामाजिक चेतना के द्वारा लोगों को उस विषय पर सोचने को विवश किया | इन फिल्मों ने भी अपने समय में लोगों का भरपूर मनोरंजन किया परन्तु इन फिल्मों में आधुनिकता की आड़ में फूहड़ता को कभी भी प्रश्रय नहीं दिया गया | आरम्भ से ही फिल्मों में मनोरंजकता का पूट इसलिए डाला जाता है ताकि दर्शक रोचकता के साथ सहज भाव से एक अपरिचित समाज को जान सके ना कि इसलिए कि मनोरंजन के नाम पर ऐसी सामग्री परोसी जाये जो समाज को पथभ्रष्ट करे |

प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्मों की विषय-वस्तु में सामाजिक कारकों का आकलन
Ø हिप हिप हुर्रे
प्रदर्शन वर्ष - 1983
अभिनय – राज किरण, दीप्ति नवल, शफ़ी इनामदार, दीपा
आधार  – खेल एवं खेल भावना
समाजिक चेतना – इस फिल्म के द्वारा झा ने यह बताने का प्रयास किया है कि कोई व्यक्ति किस प्रकार अपनी अच्छाई से अपने दुश्मनों का दिल भी जित लेता है | चाहे कितनी भी उपेक्षा एवं तिरस्कार उसे किसी व्यक्ति से मिले परन्तु बदले में किया गया एहसान ही सामने वाले व्यक्ति की सोच को बदल सकता है | दया, क्षमा और सहयोग ऐसे मानवीय गुण है जो विषम से विषम परिस्थिति में भी व्यक्ति को जीत दिला सकते हैं |
Ø दामुल
प्रदर्शन वर्ष – 1984
अभिनय – मनोहर सिंह, अन्नू कपूर, श्रीला मजूमदार, दीप्ति नवल, प्यारेमोहन सहाय
आधार – बंधुआ मजदुर और उनकी जीवन व्यथा
सामाजिक चेतना – इस फिल्म के द्वारा प्रकश झा ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि कोई व्यक्ति बंधुआ मजदुर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है | न चाहते हुए भी उसे उस व्यक्ति के सारे काम करने पड़ते हैं जिससे वह अपने जीवन में सबसे अधिक नफरत करता है | बाप द्वारा लिए गए कर्ज को चुकाते-चुकाते कई पीढियां बीत जाती हैं फिर भी वह कर्ज नहीं उतरता | उच्च जातियों के आपसी संघर्ष में हरिजन और दलित कैसे पिसते हैं, यहाँ तक की पुलिस, कानून और प्रशासन भी इन्ही का शोषण करते रहते हैं | हाशिये पर जीवन बीता रहे बंधुआ मजदूरों के प्रति सभ्य समाज का चरित्र कैसा है इसे बड़ी ही वास्तविकता के साथ निर्देशक ने परोसा है |

Ø परिणति
प्रदर्शन वर्ष – 1986
अभिनय – बसंत जोसलकर, सुरेखा सिक्री, सुधीर कुलकर्णी, नंदिता दास
आधार – राजस्थान की एक लोक कथा
सामाजिक चेतना – संतोषम परम सुखम को चरितार्थ करती इस फिल्म के द्वारा प्रकाश झा ने बड़े ही मार्मिक ढंग से यह बताने का प्रयास किया है कि अमीर होने की अंधी सनक किस प्रकार मनुष्य को ऐसे विनाश की ओर ले जाती है जिसे उसने खुद बुलाया है और जिससे वह किसी भी हाल में नहीं बच सकता | धन के प्रति अत्यधिक लालच कैसे किसी का सुख-चैन सब कुछ छीन लेती है और अंत में व्यक्ति के पास वह भी नहीं बचता जो पहले से उसके पास था | फिल्म की दूसरी शिक्षा यह है कि यदि खुद के फायदे के लिए किसी और का अहित किया जाता है तो वह किसी न किसी प्रकार से अहित करने वाले व्यक्ति के लिए ही घोर संकट पैदा करता है | मानवता के सबसे मौलिक गुण संतोष और अच्छाई के प्रति लोगों को प्रेरित करने के उद्देश्य से निर्देशक ने बड़ी ही सरलता से जीवन के गंभीर दर्शन को प्रस्तुत किया है |

Ø बंदिश
प्रदर्शन वर्ष – 1996
अभिनय – जैकी श्रॉफ, जूही चावला, शिल्पा शिरोड़कर, पारेश रावल, कादर खान, गोगा कपूर, रघुबीर यादव, हिमानी शिवपुरी
आधार – प्रेम सम्बन्ध
सामाजिक चेतना – प्रकाश झा की यह फिल्म पूरी तरह से मुम्बईया मशाला फिल्म नजर आती है | फिल्म की कहानी में किसी विशिष्ट सामाजिक चेतना का पूट नहीं है | एक स्त्री के प्रति दो हमशक्ल लोगों के प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध में किसे विजय मिलती है और कौन बलिदान देता है इसे ही फिल्म में दिखाया गया है |

Ø मृत्युदण्ड
प्रदर्शन वर्ष – 1997
अभिनय – शबाना आज़मी, माधुरी दीक्षित, ओम पुरी, अयूब खान, मोहन जोशी, शिल्पा शिरोड़कर, मोहन अगाशे, हरीश पटेल
आधार – पुरुषसत्तात्मक समाज और नारी समस्या
सामाजिक चेतना – प्रकाश झा ने इस फिल्म के द्वारा नारी मूलक समस्याओं को बड़ी ही जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया है | ग्रामीण परिवेश में समाज के हर वर्ग की महिलाओं को घर की चारदीवारी में बंद कर दिया जाता है और उनसे यही उम्मीद की जाती है कि उनका एकमात्र काम यही है की अपने पति की हर जायज-नाजायज बात को मानना | लेकिन जब नारी की चेतना जागती है और जैसे ही वह अपने पति के अमानवीय कार्यों का विरोध करती है उसी समय उसके पति के पुरुषत्व का अभिमान उन्हें कुचलने के लिए तैयार हो जाता है | पुरुष प्रधान समाज में नारियों से किस प्रकार व्यवहार किया जाता है, अपने पति से ही स्त्री को तिरस्कार और अपमान मिलने के बावजूद पति को परमेश्वर समझने की इस प्राचीन कुरीति पर निर्देशक ने प्रभावी कटाक्ष किया है |



Ø दिल क्या करे
प्रदर्शन वर्ष – 1999
अभिनय – अजय देवगन, काजोल, महिमा चौधरी, चन्द्रचुर्ण सिंह
आधार – एक अभागी माँ की निस्वार्थ प्रेम भावना
सामाजिक चेतना – प्रकाश झा ने इस फिल्म के माध्यम से समाज के उन निर्धारित मानदंडों पर दर्शकों को सोचने के लिए विवश किया है जो किसी एक व्यक्ति के लिए क्रूर बन जाते हैं | फिल्म विशुद्ध रूप से पारिवारिक है और इसमें भी किसी प्रासंगिक सामाजिक चेतना की कमी नजर आती है | यद्यपि फिल्म का विषय मार्मिक है परन्तु बॉलीवुड फिल्मों की एक ही जैसी शैली को प्रस्तुत करती यह फिल्म कोई प्रभावी संवाद नहीं कर पाती |

Ø राहुल
प्रदर्शन वर्ष – 2001
अभिनय – नेहा, राजेश्वरी सचदेव, जतिन ग्रेवाल, यश पाठक, महेश ठाकुर, गुलशन ग्रोवर, पी.बी. साहनी, तन्वी हेगड़े
आधार – माता-पिता के अन्तर्सम्बन्धों पर बच्चे का विषाद
सामाजिक चेतना – इस फिल्म के द्वारा प्रकाश झा ने व्यस्क समाज को एक बच्चे के नजरिये से दिखने का प्रयास किया है | अपने इस नवीन प्रयोग के कारण झा ने पति-पत्नी अन्तर्सम्बंध के साधारण विषय को भी इस प्रकार से प्रस्तुत किया है कि यह फिल्म दिल को छू जाती है | इस फिल्म को देखने के बाद एक नया विमर्श यह खड़ा होता है कि माता-पिता के आपसी द्वन्द में किस प्रकार एक मासूम बच्चे की सभी खुशियों की बलि दे दी जाती है | किसी भी पति-पत्नी में जब तलाक की नौबत आती है तो एक नया विवाद इस बात के लिए शुरू हो जाता है कि बच्चा किसके पास रहेगा पर कोई भी बच्चे के  इस मनोविज्ञान को समझने की कोशिश नहीं करता कि अपने माँ-बाप में से किसी भी एक को छोड़ना उसके लिए कितना दुखकारी है | निर्देशक ने समाज के हर दम्पति को इस फिल्म से यह बताने का प्रयास किया है कि उनकी आपसी रंजिश में उनकी अबोध संतान कैसे उस अथाह प्यार से वंचित हो जाती है जिसकी वह हकदार है |

Ø गंगाजल
प्रदर्शन वर्ष – 2003
अभिनय – अजय देवगन, ग्रेसी सिंह, अयूब खान, मोहन जोशी, यशपाल शर्मा, मुकेश तिवारी, मोहन अगाशे, अखिलेन्द्र मिश्रा
आधार – अपराध के विरुद्ध लाचार पुलिस तंत्र
सामाजिक चेतना – प्रकाश झा ने इस फिल्म के द्वारा पुलिस तंत्र पर अपराधिक नियंत्रण को दिखने का प्रयास किया है | किस प्रकार पुलिस तंत्र अपने मूल कर्तव्य को भूल कर अपराधियों के हाथो की कठपुतली बना हुआ है | इस बिच यदि कोई पुलिस अफसर निष्पक्ष होकर अपना दायित्व निभाना भी चाहता है तो किस प्रकार उसे अपने ही विभाग के लोगों के द्वारा अवहेलना का शिकार होना पड़ता है | वह चाह कर भी अपराधियों का कुछ नहीं बिगड़ पाता क्योंकि पूरा पुलिस तंत्र उन अपराधियों की जेब में है | जिस प्रकार लाख परेशानियाँ होने के बावजूद भी एक ईमानदार व्यक्ति अपने नैतिक मूल्यों को कभी नहीं छोड़ता उसी प्रकार यह फिल्म भी पुलिस द्वारा दंड देने के अधिकार की कड़ी आलोचना करती है | क्योंकि यह काम न्न्यायलय का है ना कि पुलिस का | निर्देशक ने फिल्म में  ‘सत्य प्रताड़ित हो सकता है परन्तु पराजित नहीं’ की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है |

Ø अपहरण
प्रदर्शन वर्ष – 2005
अभिनय – अजय देवगन, नाना पाटेकर, बिपाशा बासु, अयूब खान, मोहन अगाशे
आधार – एक दिशाहीन युवा का अपराधीकरण और अपहरण तंत्र
सामाजिक चेतना – यह फिल्म समाज की परिवेशगत अपराधिक गतिविधियों पर कड़ा प्रहार करती है | प्रकाश झा ने इस फिल्म के द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि जब किसी महत्त्वाकांक्षी बेरोजगार युवक को ईमानदारी से करने वाला कोई काम नहीं मिलता तो वह कितनी आसानी से अपराधिक व्यवसायों की ओर मुड़ जाता है | फिल्म में वर्तमान की व्याहारिक युवा पीढ़ी और रुढ़िवादी पुरानी पीढ़ी की सोच का अंतर पिता और पुत्र के आपसी द्वन्द के माध्यम से दिखाया गया है | जब एक पुत्र अपने पिता के आदर्श उसूलों के कारण कोई गैरकानूनी काम नहीं कर पाता तो वह उस पिता से संबंधविच्छेद करना ही सही समझता है | लेकिन अंत में उसे पता चल ही जाता है कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता और आदर्श उसूल ही व्यक्ति को अंत तक संतुष्ट रखते हैं | अपराध वह दलदल है जिसमे गिरने वाला व्यक्ति चाहकर भी उससे बहार नहीं निकल पाता और अंत में उसे इस दलदल से मुक्ति मौत के द्वारा ही मिलती है | इन सभी सामाजिक समस्याओं की पृष्ठभूमि में निर्देशक ने समाज में उद्योग का रूप ले चुके अपहरण तंत्र को बेनकाब कर दर्शकों को हकीकत से रूबरू करवाया है |

Ø राजनीति
प्रदर्शन वर्ष – 2010
अभिनय – अजय देवगन, रणबीर कपूर, मनोज वाजपेयी, अर्जुन रामपाल, कैटरिना कैफ, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, शारा थॉम्प्सन
आधार – दो परिवारों के वर्चस्व की लडाई और चुनावी दुष्प्रचार
सामाजिक चेतना – राजनीति फिल्म के माध्यम से प्रकाश झा ने  महाभारत की कहानी को इस युग में प्रासंगिक कर दिखाया है | जिस प्रकार एक ही वंश के कौरवों और पांडवों ने आपसी वर्चस्व की लड़ाई में अपना सब कुछ तहस-नहस कर लिया था ऐसा ही कथानक इस फिल्म में भी  दिखाया गया है | दो सगे परिवार किस प्रकार अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए किसी भी हद तक चले जातें हैं फिल्म में यही प्रस्तुत किया गया है | निर्देशक ने बड़ी ही चतुराई से भारतीय राजीतिक परिवेश को फिल्म की पृष्ठभूमि बनाया है कि किस प्रकार राजनेता सत्ता पाने के लिए ‘साम-दाम-दण्ड –भेद’ सभी का प्रयोग करते हैं | चुनाव जितने के लिए किस प्रकार घिनौने से घिनौना काम भी नेताओं द्वारा सहजता से कर दिया जाया है, यह फिल्म इसी सच्चाई से दर्शकों को परिचित कराती है |

Ø आरक्षण
प्रदर्शन वर्ष – 2011
अभिनय – अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण, मनोज वाजपेयी, प्रतीक
आधार – उच्चतर शिक्षा में जातिगत आरक्षण व्यवस्था और वैयक्तिक समबन्ध
सामाजिक चेतना – आरक्षण फिल्म में प्रकाश झा ने देश का सबसे विवादास्पद मुद्दा ‘शिक्षा में आरक्षण कोटा’ प्रस्तुत किया है | जब से सुप्रीम कोर्ट ने उच्चतर शिक्षा में जातिगत आरक्षण को संवैधानिक नियम बना दिया है तब से भारत में दो प्रकार के वर्गों के बीच संघर्ष बढ़ गया है | एक ओर सवर्ण जातियां हैं जो आरक्षण का पुरजोर विरोध करती हैं तो दूसरी ओर वो सभी निचली जातियां हैं जो आरक्षण को प्रश्रय देती हैं | इस प्रकार देश में एक शीतयुद्ध लड़ा जा रहा है जिसमें दोनों ओर भारतीय ही हैं | आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे पर आधारित होने के बावजूद भी फिल्म में इस समस्या के प्रति विमर्श से अधिक व्यैक्तिक संबंधों पर अधिक प्रकाश डाला गया है | अतः फिल्म से जिस प्रकार की सामाजिक चेतना की अपेक्षा की जाती है उसपर यह खरा नहीं उतरती | निर्देशक ने फिल्म के मुख्य विषय पर उतना ध्यान नहीं दिया है जितना इसे एक प्रभावी फिल्म बनाने के लिए आवश्यक था |
Ø चक्रव्यूह
प्रदर्शन वर्ष – 2012
अभिनय – अर्जुन रामपाल, अभय देओल, मनोज वाजपेयी, ईशा गुप्ता, ओम पूरी, अंजली पाटिल
आधार – नक्सलवाद एवं नक्सलियों की मौलिक समस्या
सामाजिक चेतना – चक्रव्यूह फिल्म के द्वारा प्रकाश झा ने भारत की सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद पर गहरा प्रकाश डाला है | वो कौन से कारण हैं जिनकी वजह से एक सीधा-साधा व्यक्ति नक्सली बनने पर मजबूर हो जाता है | समाज से अन्याय का शिकार हुए लोग किस प्रकार अपने ही देश के लोगों के सामने बन्दूक तान देते हैं | औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण के भूत ने कैसे आदिवासी समुदाय को उनकी मात्रभूमि से भी अलग होने पर विवश कर दिया है | यह फिल्म इन्ही सब मुद्दों पर गहरी संवेदना व्यक्त करती है | निर्देशक ने तटस्थ भूमिका निभाते हुए दर्शकों के सामने यह प्रश्न खड़ा किया है कि आखिर किस प्रकार की व्यवस्था से भारत भूमि नक्सलवाद के चंगुल से मुक्त हो पायेगी | समाधान के रूप में निर्देशक ने यही मत प्रस्तुत किया है की नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्या नक्सलियों को मिटाने से नहीं खत्म होगी बल्कि हमें उन कारणों को नष्ट करना होगा जो नक्सलवाद को जन्म देते हैं |




Ø सत्याग्रह
प्रदर्शन वर्ष – 2013
अभिनय – अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, करीना कपूर, मनोज वाजपेयी, अर्जुन रामपाल, अमृता राव
आधार – भ्रष्टाचार और जनाक्रोश
सामाजिक चेतना – अन्ना हजारे के लोकपाल आन्दोलन से प्रेरित इस फिल्म में प्रकाश झा ने भ्रष्टाचार के कारकों और उसपर जनता की प्रतिक्रिया को दिखाने का प्रयास किया है | भारत देश में भ्रष्टाचार एक आदत बन चुका है जिससे गरीब आम जनता बिल्कुल त्रस्त है | यद्यपि फिल्म की विषय-वस्तु अत्यंत गंभीर है पर फिल्म अतिनाटकीयता की शिकार लगती है | पूरी फिल्म अन्ना हजारे प्रकरण का अनुकरण प्रतीत होती है | देश की सबसे गंभीर समस्या के विरुद्ध निर्देशक ने कोई मत प्रस्तुत नहीं किया है, फिल्म की पृष्ठभूमि को आवश्यकता से अधिक जटिल बना दिया गया है | फिल्म में सामाजिक चेतना की जगह कल्पनाशीलता का पूट अत्यधिक दीखता है |

निष्कर्ष
            समाज के बदलते परिदृश्य को देखते हुए सिनेमा का यह उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह दर्शकों के सामने सत्यता एवं आदर्श मार्ग प्रस्तुत करे | प्रकाश झा की फिल्में इसी उत्तरदायित्व का निर्वाह करते नजर आती हैं | यद्यपि बतौर निर्देशक झा ने अपनी पहली फिल्म हिप हिप हुर्रे से उतना प्रभावित नहीं किया परन्तु उनकी दूसरी फिल्म दामुल उनके निर्देशन प्रतिभा का लोहा मानवती है | प्रकाश झा ने अपनी फिल्मों के विषय के रूप में ऐसी समस्याओं और घटनाओं को चुना है जिनसे आम आदमी का सीधा सरोकार है | फिल्मों के दृश्य और संवाद के माध्यम से भी उन्होंने पूरी वस्तिकता दिखाने का प्रयास किया है यही कारण है कि वे दर्शकों की संवेदना पाने में बहुत सफल रहे हैं | एक निर्देशक के रूप में उन्होंने सभी फिल्मों में ऐसे मुद्दों को उठाया जिनपर सभ्य समाज द्वारा चिंतन-मनन की घोर आवश्यकता थी | उनकी फिल्में समाज की वास्तविक परिस्थितियों के साथ पूर्णतः प्रासंगिक थीं |
                                     एक सिने-कलाकार के रूप में प्रकाश झा ने मीडिया की उपयोगिता को समझा है | अपनी हर फिल्म के माध्यम से उन्होंने जनता की समस्याओं से सरकार एवं सत्ता पक्ष को अवगत कराने का प्रयास किया है | साथ ही समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को भी उन समस्याओं के प्रति सोचने पर विवश किया है | बंधुआ मजदूरी, नारी समस्या, पुरुषसत्तात्मक समाज, लालच, बाल्य मनोविज्ञान, अपराध और पुलिस अन्तर्सम्बंध, बेरोजगारी, अपहरण उद्योग, राजनीति, आरक्षण, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसे कई गंभीर मुद्दों पर आधारित उनकी फिल्में सामाजिक चेतना से ओतप्रोत नजर आती हैं |



सन्दर्भ-ग्रन्थ
·      प्रगतिशील वसुधा, त्रैमासिक पत्रिका, सिनेमा विशेषांक, हिंदी सिनेमा : बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक |
·      www.prakashjhaproduction.com
·       Wikipedia, prakash jha_key
·      प्रकाश झा द्वारा निर्देशित सभी फिल्में |



  

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