देश में आज़ादी के तारीख से लेकर संविधान बनाने तथा उसे अमल में लाने
तक में जिस कानून का प्रारूप सबसे ज्यादा चर्चित रहा या यह कह सकते हैं सबसे
ज्यादा सुर्खियों में रहा वह वाक एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर ही था । वाक एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी
किसी भी देश एवं वहाँ के सामाजिक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण घटक होता है यह
किसी एक व्यक्ति के आज़ादी से शुरू हुई आज़ादी होती है । भारतीय संविधान में भाषण
और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान दिया
गया है जो की संविधान के
अनुच्छेद 19(1)
a में मौजूद है। लेकिन वहीं पे देश की अखंडता एवं संप्रभुता को लेकर एक चिन्ता समाज
के बुद्धिजीवियों को हमेसा बनी रही थी इसको देखते हुये ये भी माना गया की कहीं
इसका दुरुपयोग न हो तो इसके लिए 19 (2) के तहत इसमें कुछ प्रतिबंध भी लगाए गए हैं ।
चुकी भारत एक लोकतांत्रिक देश है तथा किसी भी देश में जहां लोकतन्त्र
होता है वहाँ नागरिकों को एक विशेष आज़ादी प्राप्त होती है। ऐसी ही कुछ आज़ादी भारती
संविधान में भी दी गयी है । लेकिन ये आज़ादी उस मायने में ज्यादा महत्वपूर्ण होती
है जब व्यक्ति अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल करे तथा उसके लिए एक सीमा रेखा जरूर तय
करे । एक कहावत भी है कि “किसी भी व्यक्ति की आज़ादी तभी तक है जब दूसरे की आज़ादी
भंग ना हो” । अभिव्यक्ति की आज़ादी में संवैधानिक प्रतिबंध से
कहीं ज्यादा नैतिक या सेल्फ सेंसरशिप की जरूरत महसूस की जाती है। और यह जरूरत किसी
व्यक्ति से लेकर संस्था तक की दूरी तय करतीं हैं। और कहीं न कहीं इसी को ज्यादा
महत्वपूर्ण माना भी जाता और माना भी जाना चाहिए, लेकिन ये
नैतिक या सेल्फ सेंसरशिप क्या है सेल्फ सेंसरशिप किसके लिए होगा या इसकी
ज़िम्मेदारी कौन लेगा, इसे कौन तैयार करेगा है इसकी रूप रेखा
कैसी होगी, यह किसके अंतर्गत कार्य करेगा इन्हीं सारे
प्रश्नों को लेकर मैंने अपने इस प्रशतुति को तैयार किया है जो पूर्ण रूप से मीडिया
संस्थानो के नीतिगत सेंसरशिप पर आधारित है । तमाम मीडिया संस्थानों ने अपने लिए या
अपने सामाजिक दायित्वों को समझते हुये कुछ कुछ नियम कानून बनाए है जो उनके खुद के
नीतियों पर आधारित है ।
नीतिगत सेंसरशिप के मायने
नीतिगत सेंसरशिप से सीधा आशय एक ऐसे सेंसरशिप से है जो किसी व्यक्ति
या संस्था पर बिना किसी सरकारी दबाव के खुद से लगाया गया सेंसरशिप हो । चुकी हम
मीडिया की बात कर रहे है तो सिर्फ मीडिया के क्षेत्र में लगाये गए सेंसरशिप की बात
करेंगे । मीडिया जो की भारत का चौथा स्तंभ है तथा इसकी ज़िम्मेदारी भी और संस्थानों
से ज्यादा होती है । चुकी इसे संविधान में अलग से किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता
नहीं दी गयी है यह वाक एवं अभव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अंतर्गत ही काम करता है तो
ऐसे में इसपर किसी भी प्रकार से संवैधानिक प्रतिबंध लगाना न्यायोचित नहीं माना
जाएगा । तो ऐसे में मीडिया के लोगों के लिए बात आती है आत्मकेंद्रित या सेल्फ
सेंसरशिप अर्थात नीतिगत सेंसरशिप की ।
नीतिगत सेंसरशिप व्यक्ति या संस्था के नीतियों का परिचायक होता है ।
हर संसथा की अपनी अलग अलग नीति होती है जिसके तहत समाचार पत्र या चैनल काम करते
हैं । इसके अंतर्गत यह तय होता है की हम क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे अर्थात
हमें क्या छापना या प्रस्तुत करना है और क्या नहीं करना है । वैसे तो प्रिंट
मेंडिया यानि समाचार पत्र ओर पत्रिका के लिए तथा उनपर प्रतिबंधित जांच के लिए “प्रेस
परिषद” होता है लेकिन अभी भी न्यूज़ चैनलों के लिए इस तरह का कोई संगठन नहीं है जो
इनपर किसी भी प्रकार का नियंत्रण रखे । तो ऐसे में समाचार चैनलों ने अपने लिए
सेल्फ सेंसरशिप के तहत एक अलग संगठनात्मक ढांचा तैयार किया जो इनको नियंत्रित
करेगा । इसके सदस्य खुद इनके द्वारा ही निर्धारित होते हैं और ये स्यातंत्र रूप से
काम करते हैं । यही संगठन ये तय करता है की अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमा हमारे लिए
क्या होगी तथा इसी सीमा के अंतर्गत हम काम करेंगे । इस सीमा का निर्धारण
अभिव्यक्ति की आज़ादी के अंतर्गत दी गयी स्वतंत्रता तथा सामाजिक दायित्वों को ध्यान
में रखते हुये किया जाता है जो संवैधानिक ढांचे तथा मीडिया संस्था को और भी मजबूत
बनाता है । वाक एवं अभिव्यक्ति के लिए नीतिगत सेंसरशिप या किसी भी प्रकार के
सेंसरशिप से पहले एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात समझ में आती है वह जानना होता है कि
अभिव्यक्ति क्या है ? और हमारे लिए इसकी
सीमा क्या होगी या हमें किस सीमा के अंतर्गत रह कर वाक एवं अभिव्यक्ति का उपयोग
करना है ।
अभिव्यक्ति
क्या है ? …….
किसी सूचना या विचार को
बोलकर, लिखकर
या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom of expression) कहलाती है। व्यवहार में
यह स्वतंत्रता कभी भी, किसी
भी देश में, निरपेक्ष
(absolute) स्वतंत्रता के रूप में नहीं प्रदान की जा सकती । अत: अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता की हमेशा कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने
भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति
न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की
सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक
नहीं है और इस पर समय-समय पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के
पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष
परिस्थितियों में, जैसे-
वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता सीमित हो
जाती है। संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में
मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी
भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा जिसके तहत वह किसी
भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्वतंत्र होगा। हालांकि, इस अधिकार के साथ
नागरिकों को विशेष दायित्व भी सौंपे गए हैं। एक मशहूर कहावत है कि आपकी स्वतंत्रता
वहीं पर खत्म हो जाती है, जहां
से दूसरे की नाक शुरू होती है। यानि इस अधिकार के तहत आप किसी को मानसिक, आर्थिक या दैहिक- किसी भी
नुकसान नहीं पहुंचा सकते। और इसी को जब मीडिया के रूप में हम
देखते हैं तो यह समझ में आता है की मीडिया किसी भी प्रकार से ऐसी बातों या सामाग्री
को ना छापे जिससे किसी भी प्रकार से किसी भी व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता भंग हो ।
अभी
कुछ दिनों पूर्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त आंदोलन का नेतृत्व करने वाली टीम
अन्ना के सदस्य व वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से उनके ही चैम्बर में कुछ लोगों
द्वारा मारपीट की गई। हमलवारों ने जवाब में यह आरोप लगाया कि प्रशांत भूषण कश्मीर
में जनमत संग्रह की बात करके देशद्रोह को अंजाम दे रहे हैं। इसके कुछ ही समय
पश्चात टीम अन्ना के एक अन्य सदस्य अरविंद केजरीवाल पर भी चप्पल फेंकने की घटना
सामने आई। इस मामले में आरोपी का कहना था कि वह टीम अन्ना से कांग्रेस के विरोध
में प्रचार करने के कारण क्षुब्ध था। उपरोक्त घटनाओं के पूर्व भी अनेक ऐसे मामले
सामने आए हैं जिनमें कई बार अपने विचार व्यक्त करने वालों को इसी तरह की प्रताड़ना
का सामना करना पड़ा है। लेकिन इस तरह की घटनाओं ने कुछ ऐसे सवाल भी पैदा किए हैं
जिन पर निरंतर बहस जारी है। यह बहस अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों और उसे एक
सीमा में बांधने के पक्षधरों के बीच है। बहस विरोध के तरीके पर भी है। यानि
अभिव्यक्ति की आजादी की क्या कोई सीमा होनी चाहिए? हां तो क्या?
और यदि कोई किसी की बात से असहमत हो तो वह अपना विरोध किस प्रकार
दर्ज करवाए ?
अभिव्यक्ति
की पूर्ण आजादी के पक्षधर यह मानते हैं कि किसी को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार
है और यही लोकतंत्र का मूल सिद्धांत भी है। इसमें यह नहीं देखना चाहिए कि कही गई
बात किसे अच्छी लगती है और किसे बुरी। जबकि अभिव्यक्ति की मर्यादित आजादी के
पक्षधर कहते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोल देना कहीं से भी
जायज नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ लोग
राष्ट्रद्रोह को बढ़ावा देते हैं या सामुदायिक/धार्मिक/जातीय वैमनस्य को फैलाते
हैं।
ऐसे हालात में कुछ जरूरी प्रश्न सामने
आते हैं जिन पर चर्चा करना राष्ट्रहित में अनिवार्य है, जैसे:
1. अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी
प्रकार का प्रतिबंध कहां तक उचित है?
2. क्या अभिव्यक्ति की आजादी के
नाम पर राष्ट्रद्रोही विचारों को प्रश्रय मिलता है?
3. क्या अभिव्यक्ति की आजादी को
बाधित करने के लिए हिंसात्मक (शारीरिक, मौखिक)
कृत्यों को जायज ठहराया जा सकता है ?
रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स के अनुमान के
अनुसार, दुनिया भर में
प्रेस की आजादी के सूचकांक में भारत का स्थान 105वां है भारत
के लिए प्रेस की आजादी का सूचकांक 2009 में 29.33
था । भारतीय संविधान में
"प्रेस" शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन "भाषण और अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के अधिकार" का प्रावधान किया गया है जो
की संविधान के अनुच्छेद 19(1) a में मौजूद है। हालांकि उप-अनुच्छेद (2),
के अंतर्गत यह
अधिकार प्रतिबंध के अधीन है, जिसके द्वारा भारत की प्रभुसत्ता एवं अखंडता, राज्य की
सुरक्षा, विदेशी
राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध जनता में श्रृंखला, शालीनता का
संरक्षण, नैतिकता का
संरक्षण, किसी अपराध के
मामले में अदालत की अवमानना, मानहानि, अथवा किसी
अपराध के लिए उकसाना आदि कारणों से इस अधिकार को प्रतिबंधित किया गया है".
जैसे कि सरकारी गोपनीयता अधिनियम एवं आतंकवाद निरोधक अधिनियम के कानून लाए गए हैं । प्रेस की
आजादी पर अंकुश लगाने के लिए पोटा (पीओटीए) का इस्तेमाल किया गया है । पोटा
(पीओटीए) के अंतर्गत पुलिस को आतंकवाद से संबंधित आरोप लाने से पूर्व किसी व्यक्ति
को छः महीने तक के लिए हिरासत में बंदी बनाकर रखा जा सकता था । स्वाधीनता की पहली
आधी सदी के लिए, राज्य के द्वारा मीडिया पर नियंत्रण प्रेस की
आजादी पर एक बहुत बड़ी बाधा थी । इंदिरा गांधी ने वर्ष 1975
में एक
लोकप्रिय घोषणा की कि "ऑल इण्डिया रेडियो"
एक सरकारी अंग
(संस्थान) है और यह सरकारी अंग के रूप में बरकरार रहेगा । 1990
में आरम्भ हुए
उदारीकरण में, मीडिया पर निजी नियंत्रण फलने-फूलने के साथ-साथ
स्वतंत्रता बढ़ गई और सरकार की अधिक से अधिक तहकीकात करने की गुंजाइश हो गई. तहलका और एनडीटीवीजैसे संगठन
विशेष रूप से प्रभावशाली रहे हैं, जैसे कि, हरियाणा के शक्तिशाली
मंत्री विनोद
शर्मा को इस्तीफा दिलाने के बारे में. इसके अलावा, हाल के वर्षों
में प्रसार भारती के अधिनियम
जैसे पारित कानूनों ने सरकार द्वारा प्रेस पर नियंत्रण को कम करने में उल्लेखनीय
योगदान किया है । लेकिन इस नियंत्रण को पूर्ण रूप से खत्म कर
देना भी खतरनाक माना जायेगा । इसी बात को ध्यान में रखते हुये अलग अलग संस्थाओं ने
अपने आप को नियंत्रित करने के लिए कुछ संगठन बनाए हैं जो इनपर नियंत्रण करते हैं
और एक उचित आचार संहिता बना के कार्यों का निर्धारण करते हैं जो किसी भी मीडिया
संस्था के लिए उपयोगी सिद्ध होता है ।
भारतीय प्रेस परिषद
(Press Council of
India ; PCI)
यह एक संविघिक स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता
की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और
नागरिकों के अघिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व
निबाहता है। सर्वप्रथम इसकी स्थापना 4 जुलाई, सन् 1966 को
हुई थी। इसमें अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है । प्रेस परिषद, प्रेस से
प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार
सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या
पत्रकार को चेतावनी दे सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या
किसी सम्पादक या पत्रकार के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती
नहीं दी जा सकती। काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त करने के बावजूद इस परिषद को
काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक दायित्वों के निर्वहन पर सरकार
का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। परंतु यह सिर्फ प्रिंट
मीडिया के लिए ही काम करती है । इसके द्वारा प्रिंट मीडिया के सभी माध्यमों को
संचालित किया जाता है और उसे व्यवस्थित किया जाता है ।
ट्राई : टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया
भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण
भारत में दूरसंचार पर नियंत्रण हेतु एक स्वायत्त नियामक प्राधिकरण है। इसका गठन 1997 में भारत सरकार द्वारा किया गया था। जिसका मिशन भारत में दूरसंचार संबंधित व्यापार को नियमित करना था। भारत का दूर संचार
नेटवर्क एशिया की उभरती अर्थ व्यवस्थाओं में दूसरा सबसे और विश्व का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। प्राधिकरण का लक्ष्य भारत में दूरसंचार के
विकास के लिए ऐसे
नियम कानून एवं परिस्थितियाँ बनाना था जो भारत को उभरते हुए वैश्विक समाज में एक
अग्रणी भूमिका निभाने में समर्थ बना सके। प्राधिकरण का उद्देश्य है एक ऐसा उचित और पारदर्शी परिवेश उपलब्ध कराना, जो भारतियों को प्रोत्साहित करे । इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है। यह दूरदर्शन में प्रसारित हो
रहे विज्ञापन को लेकर नियम कानून बनाता है । ट्राइ के कॉमन
चार्टर ऑफ टेलीकॉम सर्विस, 2005 के अनुसार सेवा प्रदाता को अपने उपभोक्ता की गोपनीयता का पूरा
ध्यान रखना होता है ।
यदि उपभोक्ता को अपनी समस्या का समाधान सेवा प्रदाता कॉल सेंटर
द्वारा नहीं मिलता तो वह अपनी शिकायत नोडल अधिकारी के यहां दर्ज करा सकता है। वहां
से भी समस्या का उचित हल न मिल पाने पर उपभोक्ता अपीलेट अथॉरिटी में अपनी शिकायत
कर सकता है।
इंडियन
ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन
(IBF)
इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन की
स्थापना 1999 में हुई थी । यह भारत के टेलीविजन
प्रसारकों की शीर्ष संगठन है । आईबीएफ भारतीय टेलीविजन के हितों को बढ़ावा देता है, जो राष्ट्र के
लिए आवश्यक है और बड़ा योगदान कर रही है और इस विशाल और तेजी से बढ़ रहे
उद्योग के लिए विचारों के एक क्लियरिंग
हाउस के रूप में काम कर रहा है । आईबीएफ प्रमुख प्रसारकों के 250 से अधिक टीवी
चैनलों के साथ काम कर रहा है । आईबीएफ को मान्यता
प्राप्त प्रसारण उद्योग के प्रवक्ता के रूप में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है । अपने
सदस्यों के हितों और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की
स्वतंत्रता को आईबीएफ संतुलित रखता है । राष्ट्रीय
और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टेलीविज़न को प्रमुख
मुद्दों पर आम सहमति बनाने में आईबीएफ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । आईबीएफ यह
इस बात का ध्यान देता है कि कोई भी टेलीविज़न ऐसा प्रसारण ना करें जिससे देश या समाज पर गलत असर पड़े या उसकी
अखंडता भंग होती हो ।
रेडियो ऑपरेटर एसोसिएशन
(एआरओआई)
भारत के लिए रेडियो ऑपरेटर एसोसिएशन (एआरओआई)
भारत में निजी वाणिज्यिक रेडियो स्टेशनों की आधिकारिक संघ है । एक सामूहिक सलाहकार
और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से चीजों परिभाषित
करता है तथा आम नीतियों और भारत में निजी रेडियो उद्योग के
लक्ष्यों को दर्शाता है । भारत के लिए रेडियो ऑपरेटर एसोसिएशन (एआरओआई) हाल ही में
आयोजित 'विजन 2010' का
परिणाम था । यह रेडियो के विकास तथा उसपर नियंत्रण लगाने के
लिए 2010 में शुरू किया गया था । भारतीय एफएम उद्योग के भविष्य पर चर्चा करने
के लिए इस
संगठन का ढांचा तैयार किया गया है । चुकी रेडियो को तो काफी हद तक प्रसार भर्ती
नियंत्रित करती है लेकिन जब 2000 के बाद एफ एम अस्तित्व में
आया तो यह सवाल खड़ा हुआ की इसे भी नियंत्रित करने के लिए एक संगठन की जरूरत है
लेकिन वो ऐसा संगठन हो जो इसके आज़ादी के महत्व को ध्यान में रखते हुये इसपर
नियंत्रण की पेसकस करे । और इसी को ध्यान में रखते हुये रेडियो और एफ एम से जुड़े
कुछ लोगों को इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी जो रेडियो आपरेटर एसोसिएशन के रूप में हमारे
सामने आया । इसे लाने का एक और जो कारण था वह ये कि रेडियो लाइसेंसिंग नीति के
तीसरे चरण के लिए अतिरिक्त रेडियो खुलने की उम्मीद जिसे ये नियंत्रित करे ।
न्यूज
ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन
न्यूज ब्रॉडकास्टर्स
एसोसिएशन वर्तमान विभिन्न मामलों और भारत में समाचार टेलीविजन प्रसारकों की एक
निजी संस्था है । यह अक्टूबर 2008 में प्रमुख भारतीय समाचार प्रसारकों के द्वारा
स्थापित किया गया था । नैतिकता, संचालन, विनियामक,
तकनीकी और कानूनी समाचार और तात्कालिक मामलों में चैनलों को
प्रभावित करने वाले मुद्दों के साथ सौदा करने के लिए स्थापित किया गया था. इसके
संस्थापक सदस्यों में एनडीटीवी, टाइम्स ग्लोबल ब्रॉडकास्टिंग,
टीवी टुडे, टीवी18 समूह, जी न्यूज, ग्लोबल ब्रॉडकास्ट न्यूज़ और स्वतंत्र
समाचार सेवा आदि इसके सदस्य हैं । इसके सदस्यों में एनडीटीवी समूह के कार्यकारी
उपाध्यक्ष केवी नारायण राव, जी न्यूज लिमिटेड के सीईओ,
बरुन दास, टाइम्स टेलीविजन नेटवर्क के एमडी और सीईओ सुनील लुल्ला, तथा स्वतंत्र समाचार सेवा के चेयरमैन रजत शर्मा और नेटवर्क18 समूह के सीओओ
बी साई कुमार हैं ।
यह मुख्य रूप से प्राइवेट
समाचार चैनलों पर नियंत्रण रखता है । इसके अपने कुछ नियम कानून हैं जो कुछ मनोनीत
सदस्यों द्वारा बनाए जाते हैं यह स्वतंत्र रूप से काम करता है । तथा किसी भी ऐसे
खबरों को प्रसारित करने से रोकता है जिसके प्रसारित होने से किसी भी प्रकार का
सामाजिक हानी या टेलीविज़न समाचारो की छवि खराब हो । यह समाचार चैनलों का अपना
नीतिगत सेंसरशिप प्लान है।
ब्रॉडकास्ट
एडिटर असोशिएशन
(BEA)
ब्रॉडकास्ट एडिटर असोशिएशन इलेक्ट्रॉनिक
समाचार चैनलों के संपादकों की एक शरीर है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में उच्च
मानकों को सुनिश्चित करना चाहता है । ब्रॉडकास्ट
एडिटर एसोसिएशन (बीईए) के कार्यकारी समिति पर चर्चा करने और तथ्य निकालने
के लिए तीन सदस्यीय समिति बनाई गयी जिसमें
श्री एन.के. सिंह, श्री दिबांग और राहुल कंवल की
व्यावसायिक नैतिकता के मुद्दों के मामले में जिंदल स्टील एंड पावर के खिलाफ 18
अक्टूबर, 2012 को श्री सुधीर चौधरी, कोषाध्यक्ष,
BEA और संपादक, जी न्यूज, लिमिटेड से मिले और आरोपों पे विस्तृत चर्चा की । इस तरह ब्रॉडकास्ट
एडिटर असोशिएशन ने अपनी ईमानदारी एवं सेल्फ सेंसरशिप का एक मिसाल कायम किया जो
निश्चित तौर पर नीतिगत सेंसरशिप को प्रोत्साहित कर रहा है ।
निष्कर्ष
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर जब
की यह समझा जा सका है कि हर मीडिया संस्था को नियंत्रण करने के लिए कोई न कोई
संगठन काम कर रहा है तो ऐसे में यह देखने वाली बात है कि यह संगठन कितना स्वतंत्र एवं
निष्पक्ष होकर कार्य कर रहा है । चुकी हर संगठन का ढांचा उस संस्था के मालिकों तथा
संपादकों से मिलकर बना है फिर चाहे वह एन बी ए हो या बी ई ए दोनों में ही उसे
नियंत्रित करने का जिम्मा उनके ही मालिक एवं संपादक को है । तो ऐसे में निश्चित
तौर पे किसके निष्पक्षता पे एक सवालिया नीसान खड़ा होता है । बल्कि इस मामले में
ज्यादा निष्पक्ष पी सी ई प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को देखा जा सकता है जिसे भले ही कोई
सजा निस्कासन से संबन्धित देने का अधिकार नहीं है फिर भी वह एक संवैधानिक संस्था
है एवं उसे जुडीसरी पावर के तहत देखा जाता है जो काफी हद तक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष
छवि को प्रदर्शित करती है । अब जब मीडिया की निर्भरता एवं महत्वपूर्णता दिनों दिन
सामने आती जा रही है और लगातार इसका प्रभाव लोगों पर पड़ता जा रहा है लोग स्कूलों
में काम और टेलीविज़न से ज्यादा सीख रहे है तो ऐसे में इसकी नैतिक एवं सामाजिक
ज़िम्मेदारी उस समाज और देश के प्रति बनती है जिसने इसे चौथे स्तंभ की संज्ञा दी है
।
मैं ऐसा नहीं कहता की ये संगठन
जो कार्य कर रहें है उनपर किसी भी प्रकार दबाव है या वो ठीक ढंग से कार्य नहीं कर
पा रहें है। बल्कि कई ऐसे मौकों पर इन्होंने कड़े फैसले लेते हुये सामाजिक संतुलन
बनाया है, लेकिन पिछले कुछ समय से मीडिया खास तौर से इलेक्ट्रोनिक या टेलीविज़न की
स्थिति खराब हो रही है और वो इस मामले में की वो ज्यादा समाचार चैनलों से
प्रतिस्पर्धा की दौड़ में लगातार गलत समाचार को परोसा रहें है, जिसे रोकने के लिए एक संवैधानिक संगठन की आवश्यकता पड़ रही है, और जल्द से जल्द इसे अमल में लाना होगा ।
सिफ़ारिशे
मैं अपने इस लघु शोध के आधार पे
जितना या जिस स्तर पर समझ या निर्णय पर आ सका उसके आधार पर मैं चौथे प्रेस आयोग की
जरूरत को महसूस करता हूँ, क्योंकि जो भी सेंसरशिप संगठन इस
समय काम कर रहा है वह या तो 1954 का बनाया गया है या 1985 का और इस समय का मीडिया
पूर्ण रूप से उस समय के मीडिया से भिन्न है । इस लिए या तो एक अलग सेंसरशिप लाया
जाए या फिर बिना दांत वाले आयोग को दांतों वाला बनाया जाए । इसमें कुछ सुधार भी
किया जा सकता है जो निम्नलिखित है ।
Ø प्रिंट
एवं इलेक्ट्रानिक के लिए अलग अलग सेंसरशिप पॉलिसी बने ।
Ø चुकी दृश्य माध्यम शब्द माध्यम से पूर्ण रूप से
भिन्न होते हैं तो इनका प्रभाव क्षेत्र भी भिन्न है ।
Ø जीतने
भी प्रेस आयोग बनाए गए हैं वह 18वीं सदी के बनाए गए हैं जबकि अब 21वीं सदी की
पत्रकारिता किसे ग्रहण नहीं कर पा रही हैं ।
Ø प्रेस
आयोग पूर्ण रूप से संवैधानिक होने चाहिए ।
Ø संस्थापक
एवं संपादक का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ।
देश के चौथे स्तम्भ समझे जाने वाले मिडिया के प्रति आप की पारखी नज़र और शोध द्वारा आपकी निकाली गयी आप की परख और निष्कर्ष एक बेहद सच्चा प्रयास हैI आप जैसे लोगों द्वारा पवित्र प्रयास को तहे दिल से सलाम I जावेद खान पत्रकार (कानपूर नगर )
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