पिंक एवं पार्च्ड फिल्म का नारीवादी दृष्टिकोण
कला के रूप में फिल्म
की रेसिपी जितना यथार्थ होती हैं उतना ही कल्पना भी और इसी के साथ यथार्थ की कुरूपता
का मेकअप सुंदर कल्पना के मार्फत किया जाता है। पिंक और पार्च्ड दोनों फिल्में सुंदर
कल्पना के मार्फत यथार्थ का चित्रण करती प्रतीत होती हैं। चुकी दोनों फिल्मों के अलग-अलग
निर्देशक, कलाकार और स्क्रिप्ट लेखक रहे हैं तो एक निश्चित अंतर का होना भी एक तरीके
का यथार्थ ही है। यह यथार्थ सुंदर कल्पना के
विभेद के रूप में सामने आता है। दोनों फिल्म में महिलाओं को सशक्त रूप में स्थापित
करने की पूरी कोशिश की गयी है। दोनों फिल्म की नायिकाएँ स्वतंत्र रहना चाहती हैं। पार्च्ड
फिल्म के शुरुआती शॉट में ही सामाजिक बंधनों से जकड़ी महिलाओं के स्वतंत्र अभिव्यक्ति
को प्रदर्शित किया गया है तो वहीं पिंक फिल्म का पहला दृश्य ही भारतीय सिनेमा के अब
तक चले आ रहे उस परिपाटी को तोड़ता है जिसमें किसी पुरुष द्वारा प्रताड़ित स्त्री का
चित्रण किया जाता रहा है, बल्कि इसके इतर निर्देशक ने एक सिर
फूटे लड़के को स्टेबलिश किया है जिसे उसके दो दोस्त हॉस्पिटल ले जा रहे होते हैं और
कहते हैं कि ‘उन लड़कियों को देख लेंगे’...
दोनों ही फिल्म में स्त्री संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती तीन स्त्रियों को देखा जा सकता
है। तीन की संख्या का वाजिब कारण तो फिल्म के निर्देशक ही बता सकते हैं। दोनों ही फिल्में
यही दिखाने का पुरजोर कोशिश करती हैं कि आज भी हमारे पृत्सत्तात्मक समाज में स्त्रियों
की हकीकत इंतजार, इल्जाम, बंदिशे और गलियों
तक ही सीमित हैं। फिल्में उन सारे बयानबाजी को धता साबित करती हैं जिसमें पृत्सत्तात्मक
समाज द्वारा अपने सभ्य होने का प्रमाण दिया जाता रहा है। फिल्म यह दिखाने में सफल होती
है कि अगर कुछ बदला है तो सिर्फ शोषण का तरीका! दोनों फिल्म घटना से ज्यादा विचार पर
ज़ोर देते हैं चाहे पार्च्ड फिल्म में राधिका आप्टे द्वारा वाइब्रेट हो रहे मोबाइल फोन
पर बैठ कर यौन इच्छाओं का आनंद लेते हुये दिखाया गया हो या पिंक फिल्म की नायिका द्वारा
अपनी इच्छा से एक से ज्यादा पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध वाली बात को मुखरता के साथ
स्वीकार करना दिखाया गया हो।
अगर व्यक्तिगत राय देखि
जाय तो मुझे पार्च्ड फिल्म की अपेच्छा पिंक थोड़ी कमजोर लगी। पार्च्ड फिल्म की नायिका
जहां पूरे फिल्म में सशक्त रूप में देखि गई तो वहीं पिंक में डरी और सहमी हुई नजर आयी।
पिंक फिल्म में लड़कों द्वारा जबरन गाड़ी में बैठाये जाने पर नायिका उसके प्रति संघर्ष
न कर माफी मांगते देखि गई। इसी संदर्भ में मैं यथार्थ के सुंदर चित्रण की बात कर रहा
था जो इस फिल्म में कई जगह कमजोर नजर आया। भारतीय फिल्मों में अंत बहुत महत्वपूर्ण
होता है जो सुखांत पर पूर्ण रूप से आधारित होता है फिर चाहे आप इसे दर्शक की मांग समझ
ले या निर्देशक की कमजोरी। पिंक फिल्म के द इंड ने मुझे खासा निराश किया। फिल्म के
अंत में न्यायधीश द्वारा सुनाये गए फैसले में तर्क से ज्यादा भावनाओं का समावेश देखा
गया जो नायिकाओं के सशक्त जीत को प्रदर्शित नहीं कर पाया। पिंक फिल्म के अंत ने पृत्त्सत्ता
की उसी शक्ति संरचना को परिभाषित किया जिसमें पुरुष द्वारा स्त्री की मांग को दया रूप
में मान लिया जाता है। लेकिन पार्च्ड फिल्म ने फिल्म के सभी पक्ष के साथ न्याय किया
एवं इस फिल्म का अंत प्रभावशाली रहा जिसमें औरतों को ही आवाज उठाने के लिए प्रेरित
किया गया। इन सब के बावजूद दोनों फिल्म सामाजिक विषमताओं का सुंदर चित्रण करती हैं
इसलिए फिल्म जल्द से जल्द देख ले क्योंकि समाज का आईना आपको आपका चरित्र तो दिखाता
ही रहेगा।